ब्रिटिश काल के कानून तथा अधिनियम
ब्रिटिश काल के कानून तथा अधिनियम
पिट्स इंडिया एक्ट 1784
- इस अधिनियम ने भारतीयो को मामलोँ को सीधे ब्रिटिश सरकार के आधीन कर दिया।
- ईस्ट इंडिया कंपनी शासी निकाय ‘कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स’ पर नियंत्रण करने के लिए कंट्रोल बोर्ड का गठन किया गया, जो कैबिनेट का प्रतिनिधित्व करता था।
1813 ई. का चार्टर अधिनियम
- कंपनी के अधिकार-पत्र को 20 सालों के लिए बढ़ा दिया गया.
- कंपनी के भारत के साथ व्यापर करने के एकाधिकार को छीन लिया गया. लेकिन उसे चीन के साथ व्यापार / चाय के व्यापार के संबंध में एकाधिकार प्राप्त रहा.
- सभी ब्रिटिश नागरिकों के लिए भारत के साथ व्यापार खोल (कुछ सीमाओं के अधीन) दिया गया.
चार्टर एक्ट 1833
- इस अधिनियम ने बंगाल के गवर्नर जनरल को, भारत के गवर्नर जनरल की पदवी प्रदान की। उसे सभी तरह की नागरिक और सैन्य शक्तियां प्राप्त हुईं।
- मुंबई और मद्रास की सरकार को अपनी विधायी शक्तियो से वंचित होना पड़ा।
- ब्रिटिश कालीन भारत के केंद्रीकरण की दिशा मेँ यह अंतिम कदम था।
- इस एक्ट के फलस्वरुप ही प्रथमतः भारत सरकार का आविर्भाव हुआ।
- जिसे ब्रिटिश शासकों द्वारा अधिकृत समस्त क्षेत्र पर अधिकार प्राप्त था।
- इस एक्ट के माध्यम से ईस्ट इंडिया कंपनी की वाणिज्यिक गतिविधियाँ का भी अंत हो गया।
चार्टर एक्ट 1853
- इस अधिनियम के परिणामस्वरूप गवर्नर जनरल की परिषद की परिषद् के विधायी कार्यों का पहली बार पृथक्करण हुआ।
- इस अधिनियम के फलस्वरुप ही कंपनी के लिए लोक सेवको की भर्ती की खुली प्रतियोगिता प्रणाली का सूत्रपात हुआ तथा डायरेक्टरों को अपनी शक्तियोँ से वंचित होना पड़ा।
भारत शासन अधिनियम 1858
- इस अधिनियम के फलस्वरुप भारत की सरकार, क्षेत्र और राजस्व ईस्ट इंडिया कंपनी से ब्रिटिश ताज को हस्तांतरित हुआ, अर्थात कंपनी का शासन भारत मेँ ब्रिटिश ताज के द्वारा प्रतिस्थापित कर दिया गया।
- भारत मेँ ब्रिटिश ताज की शक्तियों का प्रयोग सेक्रेटरी ऑफ स्टेट द्वारा होने लगा। इस प्रकार कंट्रोल और बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स का स्थान इस नए पद ने ले लिया।
- सेक्रेटरी ऑफ स्टेट केबिनेट ब्रिटिश कैबिनेट का सदस्य था, जिसकी सहायतार्थ 15 सदस्योँ वाली काउंसिल ऑफ इंडिया थी। सेक्रेटरी ऑफ स्टेट को भारतीय प्रशासन पर सर्वाधिकार और नियंत्रण की शक्तियाँ प्राप्त थीं।
- गवर्नर जनरल उसका एजेंट होता था तथा वह ब्रिटिश संसद के प्रति जवाबदेह था।
भारतीय परिषद अधिनियम 1861
- भारत मेँ पहली बार प्रतिनिधिक संस्थाओं की शुरुआत हुई ताकि यह व्यवस्था की जा सके कि विधायी कार्यो के समय गवर्नर जनरल की कार्यकारी परिषद मेँ गैर सरकारी सदस्योँ के रुप में कुछ भारतीय भी शामिल हों।
- इससे मुंबई और मद्रास प्रेसीडेंसी को विधायी शक्तियां प्राप्त हुईं, जिसके फलस्वरुप विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया का सूत्रपात हुआ। पोर्टफोलियो प्रणाली को संवैधानिक मान्यता मिली।
- इससे गवर्नल जनरल को परिषद में सुचारु कार्य व्यवहार करने के लिए नियम निरुपण की शक्ति प्राप्त हुई।
भारतीय परिषद अधिनियम 1892
- इस अधिनियम के माध्यम से अप्रत्यक्ष तौर पर चुनाव के सिद्धांत का परिचय हुआ।
- गवर्नर जनरल को तब भी नामांकन की शक्ति प्राप्त थी, जब सदस्य अप्रत्यक्ष तौर पर चुने जाते थे।
- इस अधिनियम द्वारा मेँ द्वारा विधायी परिषद के कार्य क्षेत्र मेँ विस्तार हुआ, उसे बजट संबंधी चर्चा करने और कार्यकारिणी के समक्ष प्रश्न रखने की शक्तियाँ प्राप्त हुईं।
भारतीय परिषद अधिनियम 1909
- इस अधिनियम को मिंटो-मार्ले सुधार अधिनियम के नाम से भी जानते हैंँ (लार्ड मार्ले भारत के तत्कालीन सेक्रेटरी ऑफ स्टेट थे तथा लार्ड मिंटो गवर्नर जनरल थे)।
- इसके द्वारा सेंट्रल लेजिस्लेटिव कॉउंसिल का नाम बदलकर इंपीरियल लेजिसलेटिव कॉउंसिल कर दिया गया और इसमें आधिकारिक बहुमत का मार्ग प्रशस्त कर दिया गया।
- प्रांतीय विधान परिषदों में अनाधिकारिक बहुमत की शक्ति प्रदान की गई। इसके अतिरिक्त इस अधिनियम के माध्यम से विधान परिषदों के आकार और कार्यप्रणाली को विस्तार दिया गया।
- अधिनियम के माध्यम से पृथक निर्वाचक मंडल की धारणा को स्वीकार कर मुस्लिमो के लिए सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व प्रणाली की शुरुआत भी की गई।
- इस प्रकार अधिनियम के माध्यम से संप्रदायवाद को वैधानिक दर्जा प्राप्त हुआ और इसके द्वारा लार्ड मिंटो को सांप्रदायिक निर्वाचक मंडल का जनक माना जाता है।
भारतीय शासन अधिनियम 1919
- इस अधिनियम को मांटेग्यू चेंसफोर्ड सुधार (भारत मेँ तत्कालीन सेक्रेटरी ऑफ स्टेट मोंटे तथा तत्कालीन गवर्नल जनरल लार्ड चेंसफोर्ड) के नाम से भी जाना जाता है।
- अधिनियम के माध्यम से केंद्रीय और प्रांतीय विषयों का अलग अलग निर्धारण कर प्रांतो पर केंद्र के नियंत्रण मेँ कमी लाई गई।
- केन्द्रीय और प्रांतीय विधान सभाओं को अपनी अपनी विषय सूची से संबंधित कानून बनाने के लिए प्राधिकृत किया गया।
- इस अधिनियम के माध्यम से प्रांतीय विषयो को स्थानांतरित और आरक्षित दो भागो मेँ विभक्त किया गया। स्थानांतरित विषयों को गवर्नर द्वारा प्रसारित किया जाता था।
- जिसे अपने कार्य मेँ विधानपरिषद के प्रति उत्तरदायी मंत्रियोँ का सहयोग प्राप्त था।
- आरक्षित विषय भी गवर्नर के अधीन थे, किंतु इसमेँ उसे कार्यकारी परिषद का सहयोग प्राप्त था जो विधानपरिषद के प्रति जिम्मेदार नहीँ थी।
- शासन की इस दोहरी पद्धति को द्वैध शासन के नाम से जाना जाता था, परंतु यह प्रयोग सफल नहीँ रहा था।
- इस अधिनियम के फलस्वरुप देश मेँ द्विसदनीय और प्रत्यक्ष चुनावों का सूत्रपात हुआ।
- इस प्रकार इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल की जगह द्विसदनी विधानमंडल अस्तित्व मेँ आया, जिसमेँ उच्च सदन (राज्य परिषद) और निम्न सदन (विधानसभा) का
- प्रावधान था।
- इन दोनो सदनोँ के अधिकांश सदस्य प्रत्यक्ष चुनाव द्वारा चुने जाते थे।
- इस अधिनियम मेँ यह प्रावधान किया गया कि 6 सदस्योँ गवर्नर जनरल काउंसिल में तीन सदस्य (कमांडर इन चीफ को छोड़कर) भारतीय होंगे।
भारत शासन अधिनियम 1935
- परिसंघ अधिनियम के तहत प्रांतों और इकाईयोँ के रुप में रजवाड़ों को शामिल करके अखिल भारतीय परिसंघ की स्थापना का प्रावधान किया गया।
- फलस्वरूप इस अधिनियम के द्वारा केंद्र और इकाईयों के बीच शक्तियोँ का विभाजन 3 सूचियोँ के संदर्भ मेँ हुआ-
- संघीय सूची केंद्र के लिए - 59 मदों सहित
- प्रांतीय सूची प्रांतो के लिए – 54 मदों सहित
- समवर्ती सूची केंद्र और प्रांत दोनो के लिए 36 मदों सहित।
- शेष अधिकार गवर्नर जनरल को दिए गए थे। तथापि संघ कभी अस्तित्व मेँ नहीँ आया क्योंकि रजवाड़े इसमेँ शामिल नहीँ हुए।
प्रांतीय स्वायत्तता
- इस अधिनियम के द्वारा प्रांतो के द्वैध शासन का अंत हुआ तथा इसकी जगह प्रांतीय स्वायत्तता ने ले ली।
- प्रांत केंद्र के नियंत्रण से काफी हद तक मुक्त हुए तथा इन्हें अपने अपने परिभाषित क्षेत्र के अंतर्गत प्रशासन की स्वायत्त इकाई के रुप मेँ कार्य करने की आजादी मिली।
- इसके अतिरिक्त, इस अधिनियम द्वारा प्रांतो मेँ जिम्मेदार सरकार की शुरुआत हुई अर्थात प्रांतीय विधानसभा के प्रति जिम्मेदार मंत्रियोँ की सलाह पर गवर्नर को कार्य करना होता था।
- अधिनियम के यह भाग वर्ष 1930 मेँ प्रभावी हुआ पर वर्ष 1939 में इसको त्याग दिया गया।
केंद्रीय स्तर पर द्वैध शासन
- इस अधिनियम केंद्र स्तर पर द्वैध शासन अंगीकृत करने का प्रावधान था।
- फलस्वरुप, संघीय विषय सूची को आरक्षित और स्थानांतरित विषय सूची मेँ विभक्त किया गया था। तथापि, अधिनियम का यह प्रावधान प्रभावी नहीँ हुआ।
प्रांतो मेँ द्विसदनीय पद्धति
- इस अधिनियम द्वारा 11 प्रान्तों मेँ से 6 प्रान्तों मेँ द्विसदनीय पद्धति की शुरुआत हुई।
- इस प्रकार मुंबई, बंगाल, मद्रास, बिहार, असम और संयुक्त प्रांतो के विधान मंडलों को दो सदनों अर्थात विधान परिषद (उच्च सदन) और विधान सभा (निचला सदन) मेँ बांट दिया गया। इन पर कई प्रतिबंध भी लगाए गए थे।
भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम - 1947
- 1935 के अधिनियम के तहत परिसंघ और द्वैध शासन से जुड़े प्रावधानोँ के वर्ष 1947 तक प्रभावी न होने के कारण भारत सरकार का कामकाज 1919 के अधिनियम के प्रावधानोँ के अनुसार चलता रहा।
- इस प्रकार 1919 के अधिनियम के तहत किया गया - कार्यकारी परिषद द्वारा 1947 तक जारी रहा।
- इसके द्वारा भारत को स्वतंत्र और प्रभुता संपन्नता देश घोषित किया गया और भारत के प्रशासन के प्रति ब्रिटिश संसद की जवाबदेही समाप्त हुई।
- इसके द्वारा केंद्र और प्रांत दोनों स्तरों पर उत्तरदाई सरकार की स्थापना हुई।
- संवैधानिक प्रमुखोँ के रुप मेँ नाम मात्र के लिए भारत के गवर्नर जनरल और प्रांतीय गवर्नरों की नियुक्ति की गई। दूसरे शब्दोँ मेँ, उक्त दोनो को मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करना होता था।
- इसने वर्ष 1946 मेँ गठित संविधान सभा को दो कार्य सौंपे (संवैधानिक और विधायी)। इस औपनिवेशिक विधायिका को इसने प्रभुता संपन्न संस्था घोषित किया।

