आंग्ल-मैसूर संबंध
आंग्ल-मैसूर संबंध
अंग्रेजो द्वारा मैसूर के मामले में हस्तक्षेप के कई कारण थे जिनमे सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारण वाणिजियक था। मैसूर राज्य की भौगोलिक अविस्थति था और तट के लाभकारी व्यापार पर मैसूर राज्य का पूरा नियंत्रण था। अंग्रेज एक ओर मुख्यतः काली मिर्च और इलायची के व्यापार पर एकाधिकार चाहते थे, वही दूसरी ओर उन्हें मैसूर से मद्रास की संप्रभुता को भी खतरा था।
मराठों द्वारा मैसूर पर नियंत्रण आक्रमणो से वहाँ की वित्तीय स्थिति ख़राब हो गयी थी। मैसूर राज्य के वित्त नियंत्रण देवराज एवं नंदराज की असफलता ने हैदरअली के उदय होने में बहुमूल्य योगदान दिया। सन 1761 तक हैदरअली ने मैसूर में अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया। एक ओर जहाँ अपनी सर्वोच्चता को स्थापित करने तथा अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने के लिए मराठा, निजाम तथा कर्नाटक का नवाब निरंतर सीमा-विस्तार में लगे हुए थे, वही दूसरी ओर, पड़ोस में हैदरअली के नेतृत्व में एक स्वतंत्र राज्य का उदय होना उनकी आँख का काँटा बन गया था।
ऐसी परिसिथतियों ने ईस्ट इंडिया कंपनी को हस्तक्षेप का सुनहरा अवसर प्रदान किया। मैसूर राजस्व के मामले में धनी प्रांत था और फ्रांसीसियों से उसके संबंध थे, इसलिए मैसूर-फ्रांसीसी संबंध अपने आप में अंग्रेजो के लिए एक बड़ा खतरा था। ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने व्यापारिक हितों की रक्षा के लिए प्रत्यक्ष रूप से हस्तक्षेप की नीति का अनुसरण किया। पारिणामतः कंपनी एवं मैसूर के मध्य चार महत्वपूर्ण युद्ध लड़े गए।
प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध (1780-84 ई.)
कारण :
- (क) अंग्रेजो की महत्वाकांक्षाएँ
- (ख) कर्नाटक के नवाब मुहम्मद अली व हैदरअली में शत्रुता
- (ग) मालाबार के नायक सामन्तो पर हैदरअली का नियंत्रण
- (घ) हैदरअली का अंग्रेजो की मित्रता का प्रस्ताव न मानना।
परिणाम : मद्रास की संधि, 1769 ई. - हैदरअली व ईस्ट इंडिया कम्पनी दोनों पक्षों ने एक दूसरे के विजित प्रदेश तथा युद्धबंदी लौटा दिए। दोनों पक्षों ने एक-दूसरे पर किसी भी बाहरी शक्ति के आक्रमण के समय सहायता देने का वचन दिया।
बंगाल में मिली विजय के पश्चात कंपनी का आत्मविश्वास बहुत बढ़ गया था। अब उसने अपना ध्यान दक्षिण भारत की ओर केन्द्रित किया। अंग्रेजो द्वारा हैदरअली के विरुद्ध 1766 ई. में हैदराबाद के निजाम के साथ एक संधि की गयी। निजाम ने अंग्रेजो को हैदर के विरुद्ध सहायता प्रदान करना स्वीकार किया।
टीपू सुल्तान (1750-1799 ई.)
टीपू सुल्तान 18 वीं सदी के मैसूर का शासक था। यह हैदरअली की मृत्यु के बाद 1782 ई. में गद्दी पर बैठा। इस समय अंग्रेजो तथा मैसूर के मध्य संघर्ष जारी था। सन 1784 में दोनों पक्षों में मंगलौर की संधि हो गयी। उसने तुर्की एवं फ़्रांस में अपने दूत भेजकर अंग्रेजो के विरुद्ध सहायता प्राप्त करने का प्रत्यन किया, किंतु विफल रहा। सन 1785 से 1787 ई. के मध्य उसका मराठों से संघर्ष हुआ तथा उसने कुछ मराठा प्रदेशो पर अधिकार कर लिया।
कार्नवालिस ने 1790 ई. में टीपू पर फ्रांसीसियों से सांठ-गांठ करने का आरोप लगाते हुए उस पर आक्रमण कर दिया तथा निजाम व मराठो को भी अपने साथ मिला लिया। आरंभ में अंग्रेज विफल रहे, किंतु अंततः वे टीपू को 1792 ई. में श्रीरंगपटटनम की संधि हेतु विवश करने में सफल रहे। इस संधि के अनुसार उसे 3 करोड़ रुपए तथा अपने साम्राज्य का एक बड़ा भाग अंग्रेजो को सौंपना पड़ा। इसके बाद 1799 ई. में वेलेजली ने टीपू पर पुनः फ्रांसीसियों के सांठ-गांठ का आरोप लगाते हुए उस पर आक्रमण कर दिया। टीपू वीरतापूर्वक लड़ता हुआ 4 मई, 1799 ई. को मारा गया तथा मैसूर राज्य पर अंग्रेजो का अधिकार हो गया।
टीपू एक वीर सेनानायक था, किंतु वह अपने पिता के समान चतुर राजनीतिज्ञ सिद्ध नहीं हुआ। वह जैकोबिन क्लब (Jacobin Club ) का सदस्य था तथा उसने अपनी राजधानी श्रीरंगपटटनम में 'स्वतंत्रता का वृक्ष' लगवाया था। उसने नई मुद्रा ढलवाई तथा नाप-तौल की नवीन विधि अपनायी, आधुनिक कैलेंडर की शुरुआत की तथा श्रंगेरी के मठ को दान दिया। टीपू सुल्तान ने अपनी एक व्यापारिक कंपनी भी स्थापित की।
द्रितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध (1780-84 ई.)
सन 1771 में जब मराठों ने हैदरअली पर आक्रमण किया तब अंग्रेजो ने मद्रास की संधि का उललंघन करते हुए उसकी कोई सहायता नहीं की। अंग्रेज मद्रास की संधि के प्रति निष्ठावान नहीं थे। परिणामस्वरूप, दोनों के मध्य एक बार फिर से युद्ध के बादल मंडराने लगे। ब्रिटिश गवर्नर जनरल वांरेन हेसिटंग्स अमेरिका में युद्ध छिड़ने एवं फ्रांसीसियों द्वारा अमेरिका का साथ निभाने से चिंतित हो गया क्योकि हैदरअली के फ्रांसीसियों से अच्छे संबंध थे ।
कारण :
- (क) अंग्रेजो द्वारा संधि की शर्त का पालन न करना
- (ख) अंग्रेजो का माहे पर अधिकार
- (ग) हैदरअली द्वारा त्रिगुट का निर्माण
- (घ) हैदरअली के फ्राँसीसियो के साथ सम्ब्न्ध ।
परिणाम : मंगलौर की संधि, 1784 ई. - टीपू व अंग्रेज । टीपू को मैसूर राज्य में अंग्रेजो के व्यापारिक अधिकार को मानना पड़ा। अंग्रेजो ने आश्वासन दिया कि वे मैसूर के साथ मित्रता बनाये रखेंगे तथा संकट के समय उसकी मदद करेंगे।
तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध (1790 - 92 ई.) - (1790-92)
कारण :
- (क) मंगलौर की संधि का अस्थायित्व
- (ख) टीपू का फ्रांसीसियों से सम्पर्क
- (ग) मराठों के भेजे पत्र में कार्नवालिस द्वारा टीपू को मित्रो की सूची में शामिल न करना।
परिणाम : श्रीरंगपटटनम की संधि, 1792 ई. - टीपू और अंग्रेज । इस संधि के अनुसार अंग्रेजो अर्थात कार्नवालिस को टीपू सुल्तान द्वारा अपना आधा राज्य तथा तीन करोड़ रूपये जुर्माने के रूप में दिए गए।
चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध (1799 ई.) -
कारण :
- (क) टीपू का फ्रांसीसियों से सम्पर्क
- ख) भारत पर नेपोलियन के आक्रमण का खतरा
- (ग) वेलेजली की आक्रामक नीति
- परिणाम :
- (क) टीपू के राज्य का विभाजन
- (ख) दक्षिण भारत पर अंग्रेजी प्रभुत्व तथा वेलेजली की प्रतिष्ठा में वृद्धि, टीपू की मृत्यु।
आंग्ल-मैसूर युद्ध के समय बंगाल के गवर्नर जनरल
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युद्ध |
समय |
गवर्नर जनरल |
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प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध |
1767-69 ई. |
लॉर्ड वेरेल्सट |
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द्रितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध |
1780-84 ई. |
लॉर्ड वारेन हेसिटंग्स |
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तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध |
1790-92 ई. |
लॉर्ड कार्नवालिस |
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चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध |
1799 ई. |

