गधे की छाया

गधे की छाया

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एक दिन एक व्यापारी दरबार में आया और जोर-जोर से शिकायत करने लगा।
उसने कहा,
“जहाँपनाह! मैंने एक यात्री को अपना गधा किराए पर दिया था। वह उस पर सवारी कर रहा था, लेकिन जब दोपहर में धूप तेज़ हुई, तो वह गधे की छाया में बैठ गया। मैंने उसे रोका, क्योंकि मैंने सिर्फ गधे का किराया लिया था, उसकी छाया का नहीं!”

अकबर ने हैरानी से पूछा,
**“क्या तुम मज़ाक कर रहे हो? गधा किराए पर दिया, तो उसकी छाया भी उसी का हिस्सा है।”
लेकिन व्यापारी अड़ गया,
“मैं गधे की सवारी का किराया लेता हूँ, न कि उसकी छाया का। छाया पर बैठना अलग इस्तेमाल है, उसका अलग दाम बनता है।”

इस पर यात्री ने विरोध किया,
“मैंने गधे को किराए पर लिया था, और जब गधा धूप में खड़ा था, तो मैं उसकी छाया में बैठा। इसमें क्या गलत है?”

अकबर परेशान हो गए। उन्होंने बीरबल की ओर देखा, जो शांत और मुस्कराते हुए सब सुन रहे थे।

बीरबल बोले,
“जहाँपनाह, यह मामला सीधा है। व्यापारी ने गधे का किराया लिया है, न कि गधे को दो हिस्सों में बाँटने का अधिकार। छाया गधे से अलग नहीं हो सकती — और जब तक गधा किराए पर है, तब तक उसकी छाया भी उस किराए में शामिल है। व्यापारी का इस पर कोई अलग अधिकार नहीं बनता।”

फिर उन्होंने एक गहरी बात जोड़ी,
“दरअसल, यह कोई गधे की छाया का विवाद नहीं है — यह लालच की छाया है। जब मनुष्य बहुत अधिक लालची हो जाता है, तो वह उस चीज़ पर भी दाम लगाने लगता है, जिस पर उसका कोई हक़ नहीं।”

अकबर ने सिर हिलाया और व्यापारी को चेतावनी दी कि लालच कभी भी न्याय का आधार नहीं बन सकता।

नीति : “लालच वहाँ तक पहुँचता है, जहाँ हक़ की कोई जगह नहीं होती।”
          “लालच उस पर भी दाम लगाता है, जिसे प्रकृति ने मुफ्त दिया है।”