बुद्धिमान बढ़ई

बुद्धिमान बढ़ई

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एक दिन एक मशहूर बढ़ई दरबार में आया और सम्राट अकबर से बोला,
“जहाँपनाह, मैं ऐसा कारीगर हूँ जो किसी भी चीज़ को बना सकता है — कोई आकार, कोई रचना, कुछ भी।”

अकबर ने मुस्कराकर उसकी बात सुनी और फिर थोड़ी देर सोचकर कहा,
“तो फिर तुम दो मंत्रियों के बीच शांति बना दो। ये दोनों हमेशा झगड़ते रहते हैं, एकमत नहीं होते।”

बढ़ई चौंका, लेकिन आत्मविश्वास से कहा, “मैं कोशिश करूंगा।”

अगले कुछ दिनों तक उसने उन मंत्रियों से बात करने, समझाने और समझौता कराने का प्रयास किया। उसने उन्हें महंगे तोहफे, लकड़ी की बनी अद्भुत वस्तुएँ भी भेंट कीं ताकि वे प्रसन्न हों — पर कोई असर नहीं हुआ। दोनों मंत्री और भी ज़्यादा नाराज़ हो गए।

अंततः बढ़ई हार मानकर अकबर के सामने आया।
“माफ कीजिए, जहांपनाह। मैं असफल रहा।”

बीरबल, जो यह सब देख रहे थे, आगे बढ़े और बोले,
“यह कोई असफलता नहीं, बल्कि समझने का अवसर है। तुम लकड़ी को तो गढ़ सकते हो, लेकिन इंसानों के दिल और अहंकार को नहीं। शांति के असली कारीगर वे होते हैं, जो शब्दों और करुणा से मन को आकार देते हैं।”

अकबर ने गहरी साँस ली और बढ़ई की मेहनत की सराहना करते हुए कहा,
“बीरबल, तुम्हारी बात हमेशा की तरह सत्य है। केवल हुनर ही नहीं, बल्कि बुद्धि और संवेदना ही सच्चा परिवर्तन लाती है।”

नीति: हुनर से चीजें बनती हैं, पर बुद्धि से रिश्ते जुड़ते हैं।
        कौशल की सीमाएं होती हैं — पर समझदारी उन्हें पार कर जाती है।