
कुएँ का सिक्का

एक दिन सम्राट अकबर अपने दरबार में थोड़े खिन्न मन से बोले,
“मेरे सभी मंत्री मेरी हर बात से सहमत रहते हैं। क्या इनमें कोई ऐसा है जो सच का सामना करने की हिम्मत रखता है?”
बीरबल मुस्कुराए।
“जहाँपनाह, क्या मैं एक छोटी परीक्षा ले सकता हूँ?”
अकबर ने सहमति दी।
बीरबल ने अगले ही दिन राजमहल के बाग़ में एक गहरा कुआँ चुना।
सभी मंत्रियों को वहाँ बुलाया गया। भीड़ इकट्ठा हो गई।
बीरबल ने सोने का एक चमकदार सिक्का निकाला और नाटकीय अंदाज़ में उसे कुएँ में फेंक दिया।
फिर बोले,
“यह सिक्का सम्राट का सबसे प्रिय सिक्का था। यह सौभाग्य और समृद्धि का प्रतीक था। अब आप सबको इसे कुएँ से निकालना है।”
मंत्रियों के चेहरे गंभीर हो गए।
“यह तो बड़ा अफ़सोसजनक है…”
“सम्राट को इससे कितना लगाव था…”
“ऐसी दुर्लभ चीज़ खो गई…”
ऐसी ही बातें होती रहीं। लेकिन किसी ने भी कुएँ में उतरने की हिम्मत नहीं दिखाई।
कुछ पल बाद, बीरबल बिना कुछ कहे कुएँ में उतर गए और थोड़ी देर बाद बाहर आए — हाथ में एक साधारण पत्थर था।
अकबर ने चौंककर पूछा,
“यह क्या?”
बीरबल ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया,
“जहाँपनाह, यह उस खोखली प्रशंसा का प्रतीक है जो आपके चारों ओर है। सबने सिक्के की तारीफ़ की, लेकिन किसी ने उसे पाने की कोशिश नहीं की। मैं यह पत्थर लेकर आया हूँ ताकि साबित कर सकूँ — सिर्फ़ बोलने से नहीं, कुछ करने से मदद होती है।”
अकबर मुस्कुराए और बोले,
“बीरबल, तुमने फिर एक गहरी बात सिखाई — वफ़ादारी बोलने से नहीं, निभाने से साबित होती है।”
नीति: खाली शब्दों से नहीं, बल्कि सच्चे कर्मों से निष्ठा का मूल्य पता चलता है।
वफ़ादारी दिखाने से नहीं, निभाने से होती है।